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परिवर्तन

madhav kehta hai
madhav kehta hai
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मैं जी रहा हूँ बंधा हुआ ,
बस अपने काम में लगा हुआ,
भीतर भीतर मैं डरा हुआ ,
अन्दर तेज़ाब सा भरा हुआ,
अपने ही तेजाब से जल जाऊँगा,
मैं कहाँ व्यवस्था बदल पाऊंगा,
भेड़ सा पीछे पीछे चला जाऊँगा।
मैं कहाँ व्यवस्था बदल पाऊंगा ?
बढ़ती है तो बढे महंगाई,
ये सरकार मैंने ही बनवायी,
बकरा हूँ मैं,और वो कसाई,
हुक़ुमरानों की पार कहाँ पाई,
सीख ली हैं मैंने तलवा चटाई,
अब शायद लंबा जी पाउँगा,
बेशक मुर्दों सा हो जाऊँगा,
अब व्यवस्था का अंग हो जाऊँगा,
मैं व्यवस्था नहीं बदल पाउँगा।
देखकर टी वी सो गया,
होने देता हूँ जो हो गया,
अन्दर का आदमी कहाँ खो गया,
अब मैं भी पत्थर सा हो गया,
करता हूँ जो पेट कराये,
डरता हूँ जो भी डराए,
अपने लालच को कहाँ हरा पाऊंगा,
मैं भी व्यवस्था हो जाऊँगा.
शायद मैं व्यवस्था नहीं बदल पाऊंगा।

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